सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मुजरिम की पहचान के लिए कराई जाने वाली परेड (टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड - टीआईपी) को सजा का एक मात्र आधार नहीं बनाया जा सकता। कोर्ट ने इसे जांच के कई तरीकों में से एक तरीका भर माना है और कहा है कि बाकी साक्ष्यों के साथ तालमेल बिठाते हुए ही मुल्जिम को मुजरिम करार देना चाहिए। इसी आधार पर कोर्ट ने उम्रकैद की सजा पाए एक व्यक्ति को बरी कर दिया। न्यायमूर्ति अरिजित पसायत और पी. सतशिवम ने फैसला सुनाते हुए कहा कि टीआईपी जांच एजेंसियों के लिए अलग-अलग सबूतों में तालमेल बिठाने का एक हथियार भर है। कोर्ट ने कहा, मुजरिम की पहचान करने की प्रक्रिया जांच प्रक्रिया का एक हिस्सा भर है। इसीलिए कानूनी संहिता या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में इसका कोई उल्लेख नहीं है। जांच एजेंसियों को चाहिए कि वे अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद जल्दी से जल्दी पहचान की प्रक्रिया पूरी करवा लें। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दिल्ली में डकैती और हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए महाबीर और जलवीर नाम के दो व्यक्तियों की अपील पर आया है। इन दोनों को सत्र न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी अपील यह कहते हुए खारिज कर दी गई कि उन्हें अपराध के वक्त एक गवाह ने देख लिया था और उस गवाह ने उनकी पहचान भी की है। सुप्रीम कोर्ट ने महाबीर को बरी कर दिया, लेकिन दूसरे अभियुक्त की सजा यह कहते हुए बरकरार रखी कि टीआईपी के अलावा दूसरे साक्ष्य भी उसका दोष साबित करते हैं।
Source:- 14 April 2008 Danik Jagran P. 9 Delhi
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2 comments:
crisp,clear and witty exposition of ratio decidendi as expounded by apex court.keep it up,deepak kudos for the same
Hi Deepak,
Good job done done..Keep it up...Be the torch bearer to romove the ignorance of law...
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