09 February, 2010

One hole has changed the law एक छेद ने बदला कानून

और उसने कानून में छेद कर दिया-- प्रिय रंजन झा
विद्वानों का मानना है कि कानून बनता ही तोडऩे के लिए है। हालांकि मैं विद्वान नहीं हूं, लेकिन इस दर्शन में सौ फीसदी विश्वास करता हूं। वैसे, इसमें अविश्वास करने लायक कुछ है भी नहीं। सुबह से शाम तक सड़क से संसद तक इस देश में कानून का जितना पालन नहीं होता है, उससे ज्यादा उल्लंघन होता है।
खैर, मुद्दे पर लौटते हैं। अभी बुक फेयर में गया था। कुछ किताबें पसंद आईं, तो खरीद ली। काउंटर पर पैसे दिए और प्रकाशक जी ने रसीद पकड़ाई। बारी किताब पकड़ाने की आई, तो महाशय एक अजीब पॉलिबैग में किताबें भरकर मुझे पकड़ाने लगे। अजीब इसलिए, क्योंकि पॉलिबैग को हाथ में उठाने के लिए आमतौर पर जो कट बना होता है, वह उसमें नहीं था। वह कुछ-कुछ छोटे साइज के सीमेंट के कट्टे जैसा दिख रहा था।
ज्ञान भारी चीज है, शायद इसीलिए छोटी-छोटी किताबें भी काफी वजनी होती हैं। पहली बार इस विचार की बत्ती मन में जली थी। सो उस भारी कट्टे को उठाना मुझे मुश्किल लग रहा था, क्योंकि घर पहुंचने के लिए मुझे लंबा सफर तय करना था। मैंने महाशय से पूछा कि जब आपने पॉलिबैग खरीदने के लिए पैसे खर्च किए ही,तो ढंग से कैरी किए जाने लायक पॉलिबैग खरीद लेते। उन्होंने कुछ ऐसे पोज बनाया, जैसे मैं उन्हें बेवकूफ समझ रहा हूं। उन्होंने कहा, 'बॉस यह मेरी नहीं, कानून की गलती है। कानून की वजह से यह पॉलिबैग सीमेंट के कट्टे के शेप में है।
तब महाशय की बात मेरी समझ में आई। दरअसल, दिल्ली में पॉलिथीन पर बैन है और यूज करने पर दंड की व्यवस्था। दंड की व्यवस्था पॉलिथीन में सामान बेचने वालों पर है, खरीदने वालों पर नहीं। और जो पॉलिथीन की सरकारी व्याख्या है, वह बेहद अजीब है। कानून की नजर में एक फिक्स्ड थिकनेस का प्लास्टिक का कोई भी ऐसा बैग, जिसमें पकडऩे के लिए ग्रिप/ छेद/ रस्सी की व्यवस्था हो, नहीं बेचा जा सकता और न ही सामान बेचने के लिए उसका इस्तेमाल हो सकता है।
प्रकाशक महोदय ने अपनी व्यथा मुझे बता दी थी। उन्होंने मुझे जता दिया था कि उन्होंने कानून के छेद में कैसे अपनी अक्ल घुसेरी और अब खुशी-खुशी दुकानदारी कर रहे हैं। अब बारी मेरी थी। मुझे भी अपनी सुविधा देखनी थी। सो मैंने जेब टटोली। एकमात्र नुकीली चीज ड्रॉअर की चाबी मेरे पास थी। चाबी से पॉलिथीन में होल बनाया, ताकि आराम से उसे कैरी कर सकूं।
हम दोनों खुश थे। प्रकाशक महोदय कानून में छेद कर खुश थे और हम पॉलिथीन में। अपने-अपने 'चिथड़े के सुख' के साथ हम दोनों सुखी थे।
मन न मानते हुए भी देश के कानून बनाने वालों को नमन करने का कर रहा था!
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